Thursday 27 October 2016

-प्रशासन की पोल खोलती एक बाल कहानी

                                      प्रशासन की पोल खोलती एक  बाल  कहानी 

         वीरेन देख नहीं सकता था। लेकिन न देख पाने की टीस से ज्यादा उसे इस बात की तकलीफ महसूस होती कि उसके आस-पास के लोग, राजनीतिज्ञ और शासन-प्रशासन आंखें होते हुए भी कितने असंवेदनशील हो गए हैं। अस्पताल के बिस्तर पर घायल पड़े वह खुद और अपने नेत्रहीन साथियों की पीड़ा से देर तक कराहता रहा।
हॉस्पिटल के बिस्तर पर वीरेन पड़ा है। उसके माथे पर गहरी चोट का निशान चमक रहा है। आती-जाती सांसों से उसका दर्द उठता-बैठता रहता है। कई दिनों से बिस्तर पर लेटे रहने से कमर की हड्डी में तेज जलन हो रही है। बार-बार ज्योतिहीन आंखों से पानी बहता है, जिसे वह प्लास्टर लगे बाएं हाथ से बमुश्किल पोंछ पाता है। उसे याद आती है, पुलिस की ताबड़-तोड़ लाठियां। उसकी जेब से रुपयों-पैसों की छीना झपटी। शरीर को छील देने वाली भगदड़ में लोगों की आवाजें। ...और इसी बीच उसके सिर पर भरपूर लाठी का वार। एक बार फिर से वीरेन का पोर-पोर उस याद से दु:खने लगा। ‘आखिरकार, उसका या उसके जैसे दृष्टिहीन साथियों का क्या दोष था? यही न कि अल्पसंख्यक जातियों की तरह शिक्षा तथा रोजगार में सुविधा चाहते थे। आश्वासन और सहायता के बदले लाठियां मिलीं। हमारे तथाकथित रक्षक ही भक्षक बन गए। हमारा विकल्प क्या, मंदिरों और चौराहों पर भीख मांगना तय कर दिया है? नहीं...।’ वीरेन सोचते-सोचते चीख पड़ा।
स्टाफ रूम में वीरेन की चीख पहुंचते ही दो नर्सें उनके बिस्तर पर आ धमकीं। एक ने वीरेन को पुकारा, पर वह निश्चल पड़ा रहा। दूसरी ने पहली नर्स की आंखों ही आंखों में इशारा किया। पहली ने स्टाफ रूम जाकर पैथाडीन का इंजेक्शन भरा और पलट आई। दूसरी ने अतिरिक्त उत्साह से वीरेन की बांह में इंजेक्शन खाली कर दिया। वीरेन जरा कराहा, फिर एकदम से बेसुध हो गया।
अगली सुबह वीरेन के चेहरे पर तेज धूप पड़ी। उसने करवट बदलनी चाही, किंतु असफल रहा। माथे से जानलेवा टीस उठी। उसने सिर पर हाथ फेरा तो, सिर की पट्टी खून से सराबोर पाई। पुरजोर कोशिश के साथ उसने उठना चाहा। लेकिन होंठों पर जुबान फेर कर ही रह गया। उसने सोचा, ‘इसी तरह संतोष, सोहन, सतबीर, घनश्याम, कादिर आदि को भी पीटा गया होगा? जैना भी तो, उसके साथ कानपुर से दिल्ली आई थी।
जैना को भी....नहीं-नहीं, भला पुलिस इतनी निर्मम नहीं हो सकती कि एक स्त्री पर लाठी बरसाए। वो भी अंधी स्त्री पर...?
वीरेन ने क्षीण स्वर में दो-तीन बार ‘जैना-जैना’ पुकारा प्रत्युत्तर में अन्य घायल साथियों के कराहने या खांसने की ही आवाजें सुनाई पड़ती रहीं। एकदम से उसके कानों में किसी की पानी। पानी। की आवाज रिरियाने लगी।
‘...मरे क्यों जा रहे हो। अभी जितना चाहे पानी ढकोल लेना।’
‘...सिस्टर। गला बहुत सूख रहा है।’
‘....भगवान ने तुम्हें अंधा तो बनाया ही था, मेरी तरफ से गूंगा भी बना देते। शर्म नहीं आती, चिल्ल-पों करते हुए...’
वीरेन को लगा, इसी प्रकार जैना को भी ढेर सारी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा होगा। हो सकता है, पुलिस वाले थाने या चौकी घसीट ले गए हों। वहां जैना के साथ क्या नहीं हुआ होगा? पुलिस किसी के भाई-बाप का नाम नहीं होता। पुलिस माने, केवल पुलिस। बहुत संभव, पुलिस ने...।
किसी नारी के कर्कश स्वर से वीरेन के सोचने का सिलसिला टूटा, ‘ए मिस्टर। क्या बहरे भी हो? मैं कितनी देर से कह रही हूं? उठिए-उठिए...’
‘...जी, मैं उठ नहीं सकता।’
 ‘...क्यों नहीं। जहन्नुम से आ-आकर, प्रदर्शन कर सकते हो? पुलिसमैनों से मारपीट कर सकते हो? यहां मुफ्त की रोटी खा सकते हो?’
नर्स के प्रश्नों की बौछार से वीरेन की तीव्र इच्छा हुई कि इस असभ्य को फटकार दे। और नहीं तो कम से कम मरीजों के साथ कैसा सलूक किया जाता है, इस विषय पर अच्छा-खासा लेक्चर ही पिला दे। लेकिन नहीं, सोचा, उसके इस प्रकार कहने पर नर्स और भुन जाएगी? 
फ्लोरेंस नाइटेंगिल जैसी नर्सें तो अब इस दुनिया में नहीं रहीं, जो मरीजों का दर्द समझें? वीरेन ने संयम बरतते हुए स्वर में कहा, ‘सिस्टर। मेरे शरीर में काफी चोटें आई हैं, इसलिए....’
‘....तो मैं क्या करूं? अभी नेता जी आने वाले हैं। चादर और लिहाफ गंदे देखेंगे, बस मेरे सिर पर आफत आ जाएगी। तुम्हें अपनी चोटों की पड़ी है।’
‘तो....?’
‘तो क्या... तुम मरोगे ही, साथ ही मेरे एक-दो इंक्रीमेंट्स भी ले डूबोगे।’
इसी बीच आशा के विपरीत दूसरी नर्स की कोमल आवाज आई, ‘दीदी, आपको डॉ. चड्ढा बुला रहे हैं। मैं इस मरीज का बिस्तर चेंज करवाती हूं।’
कुछ क्षण बाद नाजुक हथेलियों की छुअन और उसकी मधुर ध्वनि सुनाई पड़ी, ‘भाई साहब। जरा बायीं करवट हो जाइए।’ वीरेन नर्स के कहे मुताबिक सारा कुछ करता, रहा। उसे बिल्कुल पता ही नहीं चला कि चादर और लिहाफ कब बदल गए। नर्स के अच्छे व्यवहार से वह बेहद प्रभावित हुआ और धन्यवाद की मुद्रा में बोला, ‘यदि आप जैसी सिस्टर हर अस्पताल में हों तो मरीज का आधे से ज्यादा दु:ख-दर्द बिना दवा के समाप्त हो जाए।’ वह कुछ न बोली।
 ‘आपके मौन रहने से लग रहा है। मैं जो कह रहा हूं वह एक कटु सत्य है। खैर...छोड़िए, ये नेता जी अस्पताल क्यों आ रहे हैं?’
‘पता नहीं क्यों?’ न चाहते हुए भी नर्स ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया, ‘तुम सबको देखने।’
 ‘...अच्छा। अच्छा।’ उसने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा, ‘लगता है जब पुलिसमैन हम पर लाठियां चला रहे थे तब ये सब सो रहे थे। अब दस दिन बाद नींद से जागे हैं। आखिर क्यों ना हो? पुलिस और नेता का संबंध ही ऐसा होता है।’
‘क्या मतलब?’ नर्स ने जिज्ञासा से पूछा।
‘....मेरा मतलब है कि पुलिस और नेता, एक-दूसरे के पूरक होते हैं। यानी एक का काम है कमजोर, निरीह या हम जैसे विकलांगों पर लाठियां बरसाना और दूसरे का खून-खराबा हो चुकने के बाद सत्य, अहिंसा एवं न्याय पर भाषण देना। बहुत हुआ तो न्यायिक जांच आयोग बैठा देना। या एक-दो पुलिस अधिकारियों के तबादले कर देना, बस।’
‘....लगता है, आपको दुनियादारी की गहरी जानकारी है...’
‘....हां सिस्टर, क्योंकि हम अंधों का बिल्कुल अंधों से पाला पड़ता रहता है।’
नर्स ने विस्मयता से वीरेन की ज्योतिहीन आंखों की ओर देखते हुए पूछा ‘मैं समझी नहीं...’
वीरेन विद्रूपता के साथ हंसा और बोला, ‘एक बार मैं छड़ी के सहारे चौराहा पार कर रहा था कि अचानक मोटर-कार के धक्के से जमीन पर चारों खाने चित्त हो गया। मैं छड़ी खोज कर उठता इसके पहले किसी ने मेरा गिरहबान पकड़ कर बेदर्दी से उठा लिया।’
‘च....च्च.....च्च।’
‘... सिस्टर आगे सुनिए, उसने मुझे एक जोर का झन्नाटेदार थप्पड़ रसीद करते हुए कहा, अबे साले, दिखाई नहीं देता...अंधा है क्या?’
नर्स हतप्रभ रह गई। बहुत देर नर्स चुप्पी साधे रही। फिर आहिस्ता से सर्द आवाज में बोली, ‘चलती हूं.... नेताजी के आने से पहले बहुत सी खानापूर्ति करनी है।’
शाम को भारी शरीर वाले नेता जी यानी मंत्री महोदय के आते ही हॉस्पिटल का पूरा स्टाफ चौकन्ना हो गया। डॉक्टरों ने बारी-बारी से मंत्री महोदय को हार पहनाए। खूबसूरत नर्सों ने सामूहिक स्वागत गीत गाया। दूर तक डाक्टरों, नर्सों और मंत्री महोदय के बीच खान-पान और कह-कहे तैरते रहे। मंत्री महोदय उठे। सारा स्टाफ भी सावधान की मुद्रा में उठ खड़ा हुआ। मंत्री महोदय ने स्वयं को दो-तीन बार गर्व से देखा और स्टाफ रूम के बाहर हो लिए। सारे लोग मंत्री महोदय के पीछे-पीछे भेड़नुमा चल दिए। वीरेन के पलंग के समीप पहुंच कर मंत्री महोदय हेड डॉक्टर से फुसफुसाए, ‘इसे ज्यादा चोटें आई हैं...?’
हेड डॉक्टर ने तीन कोने का मुंह बनाते हुए सफाई दी, ‘जी.. नहीं, कोई खास नहीं। सिर्फ एक इंच लंबा और आधा इंच गहरा घाव सिर पर है। बाएं हाथ की हड्डी टूट गई है। पैरों में बस सूजन भर है। मरेगा नहीं, यह मेरा अनुभव है।’
‘...डॉक्टर, वे अंधे केवल अंधे ही नहीं मूर्ख भी हैं। विदेशियों ने कह दिया विकलांग वर्ष हंै। हमने भी पोस्टर लगवा दिए, विकलांग दिवस-वर्ष सब कुछ है। वाकई जो इनको जरूरत थी। चश्मे तथा छड़ियां बांट दी गर्इं। लेकिन विकलांग वर्ष का यह मतलब तो नहीं, कि ये लोग तोड़फोड़ करें... हो-हल्ला मचाएं... पुलिस से हाथा-पाई करें... और जब पुलिस आत्मरक्षा करे तो हिंसा और अत्याचार बताएं’
‘...नहीं, बिल्कुल नहीं।’ सारे एक साथ मिमियाए।
‘...इन लोगों को जितनी सहायता दी जाएगी, उतना ही बलबलाएंगे। इन्हें ज्यादा सुविधा देना, इन्हीं लोगों पर कही गई कहावत चरितार्थ करना है, ‘अंधे को घर से लाओ, ऊपर से...।’
समीप खड़ी नर्सें अदा के साथ मुंह पर रूमाल रख कर मुस्कराने लगीं। डॉक्टर मन ही मन कहावत दुहराने लगे। बड़ी सी फलों की टोकरी लिए हुए साथ चल रहे व्यक्ति से मंत्री महोदय ने कुछ फल लिए। निर्विकार भाव से वीरेन को देखा और फल उसके सिरहाने रख दिए। एक सेव लुढ़ककर वीरेन के पैरों में जा लगा। वीरेन की तंद्रा टूटी, ‘कौन?’
‘मैं....’ सगर्व मंत्री महोदय बोले।
‘मैं...’ वीरेन ने उठते हुए पूछा।
डॉक्टरों की आंखों में खूनी तलवार-सी लटक गई। मौके की नजाकत समझ कर एक अधेड़ नर्स ने कहा, ‘हद है, जरा कोई चीज छू गई और तुम बच्चों की तरह चिहुंक उठे। तुम्हारे बिस्तर पर मंत्री जी ने फल रखे हैं, सांप नहीं।’
अधेड़ नर्स की संवाद अदायगी से मंत्री सहित सारे लोग खिलखिला कर हंस दिए। मारे मुस्से के वीरेन की मुट्ठियां बंध गर्इं। कोई और वक्त होता तो वीरेन बेलाग डपट देता। लेकिन इस समय वह आश्चर्य से उन सब की हंसी सुनता रहा। फिर भी वीरेन की इच्छा हुई, कह दे, ‘सिस्टर। थोड़ी देर अपनी आंखों में पट्टी बांध कर खड़ी हो जाओ तब आपको ही सांसें, बिच्छू-सांप लगने लगेंगी।’ वीरेन की अभी शायद और भी बहुत कुछ कहने की इच्छा थी, लेकिन तभी सारा हुजूम आगे बढ़ गया।
‘मेरे दृष्टिहीन भाइयों, मैं इस राज्य का मंत्री हूं। लेकिन सबसे पहले आपका भाई और अजीज दोस्त।’ यकायक वीरेन के कानों में मंत्री महोदय की आवाज टकराने लगी, ‘आपको सबको विकलांग वर्ष मुबारक हो। इसी के साथ जो आप पर अन्याय-अत्याचार हुआ है, उसके लिए मैं माफी चाहता हूं। आप दयावान, गुणवान एवं धैर्यवान हैं, जरूर क्षमा कर देंगे। इस अस्पताल में आप लोगों को देखकर जितना मुझे कष्ट हो रहा है उतनी ही प्रसन्नता क्योंकि आज कई दृष्टिहीन महापुरुषों की याद ताजा हो गर्इं।’
एक साथ जोर से तालियों की गड़गड़ाहट हुई। नर्स-डॉक्टर एक साथ ‘मंत्री जी की जय’ चिल्ला उठे। इसी बीच मंत्री महोदय दहाड़े, ‘शांत....। शांत भाइयों। हां तो, मैं कह रहा था कि आप पर जो लाठीचार्ज हुआ इसकी जड़ है, विरोधी दल के नेतागण। लेकिन मैं वादा करता हूं, हर दोषी को कठोर से कठोर दंड दिलवाऊंगा। चाहे वह विरोधी दल का नेता हो या अधिकारी। जैसा कि आप लोग जानते होंगे, न्यायिक जांच बैठा दी गई है। जो विकलांग भाई हताहत हुए हैं, उन्हें कल शाम इसी अस्पताल में पांच-पांच हजार रुपए दिए जाएंगे। बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि इस हादसे में एक अंधी बहन की मृत्यु हो गई। सरकार...’
बस वीरेन से इसके आगे न सुना गया और वह पूरी ताकत से चिल्लाया, ‘जै...ना...।’
वीरेन की चीख से मंत्री महोदय का भाषण एकदम से रुक गया। सारे लोग खंूखार नजरों से वीरेन की ओर देखने लगे। मंत्री महोदय, कुछ क्षण स्तंभित रहे और फिर उत्तेजित होकर बोले, ‘यह अंधा विरोधी दल से मिला हुआ है।’
‘...हां, और नहीं तो क्या।’
एकदम से डाक्टर-नर्सों का समवेत स्वर गूंजा।
‘..घबराओ मत साथियों, मेरे रहते अब कोई षडयंत्र न होगा।’ कहते हुए मंत्री महोदय ने एक जूनियर डॉक्टर को इशारे से कहा कि वह वीरेन को किसी तरह चुप कराए।
आज्ञाकारी डॉक्टर ने दो नर्सों की सहायता से वीरेन के हाथ-पैर मोटी डोरी से बांध दिए और फिर चौड़ा-सा टेप मुंह में चिपका दिया। मंत्री महोदय, ने निश्चिंत होकर फिर से बोलना शुरू किया। वीरेन परकटे पंक्षी की भांति बिस्तर पर छटपटाता रहा।

 

swakchh bharat abhiyan painting by somya w ankita

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Wednesday 22 May 2013

   फूलो  से सिख 

 उपवन तुम्ने देखा  होगा ,
देखी होगी उसकी क्यारी .
संतरंगे फूलो की  शोभा ,
देखी होगी प्यारी -प्यारी .
                                       
   सुमनो ने कब  लरना सिखा ,                                          
                                                    वो                                          वो हँसते -हँसते जीते  है . 

                                                            सबको वे सौरभ देते है ,
                                                             अपना रस न वे पीते  है .
                                                           
                                           

Saturday 13 April 2013

poem

मंदिर जाओ ,मस्जिद जाओ 
चर्च और गुरूद्वारे जाओ 
सभी जगह रहता  हैं ईस 
उसी इस को शीश झुकाओ 

Saturday 16 February 2013

chiriya

           तिनके   चुनकर लाती चिरिया ,
           अपना नीर बनाती चिरिया .
       
          चाहे मुन्ना हो या मुनिया ,
          चाहे गुड्डा हो या गुरिया .
          घर घर  की   गौरैया  बनकर ,
           सबके मन बहलाती चिरिया .
           
            घर में , वन में और फूलो पर ,
            डाली के हिलते झूलों  पर ,
           कभी फुदककर नाच दिखाती ,
              कभी  गीत -सा  गाती  चिरिया .
         
             इसको  पिंजरे   में मत   डालो ,
             खुला  छोरकर  इसको  पालो ,
              आजादी  की  खुली  हवा  में .
               अपने  पर  फैलाती  चिरिया .
           

         
                     

chanda mama

आ  रे ,चंदा   मामा  आ ,
अपनी विमल चाँदनी  ला .
धरती पर  अँधियारा  है ,
तू  उजियारा  लेकर आ .    
   
खीर पकाई है माँ ने ,
जल्दी से आकर खा जा .
माँ  भी खुश हो  जाएगी ,
तभी बजाउंगा  बाजा .

 किरणों की डोरी थामे ,
अंबर से  नीचे  तो आ .
तू माँ का भैया है तो ,
जल्दी मेरे घर आ जा .